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भारत – पाकिस्तान विभाजन के पीछे क्या कारण थे?| भारत – पाकिस्तान विभाजन की सच्चाई क्या है?| Reality of India - Pakistan partition |

हैलो मित्रों!
मेरे ब्लॉग में आपका स्वागत है, आज हम भारत-पाकिस्तान विभाजन 1947 को समझने की कोशिश करेंगे। जैसे की 

यह विभाजन क्यों हुआ?

भारत – पाकिस्तान विभाजन के पीछे क्या कारण थे?

भारत – पाकिस्तान विभाजन की सच्चाई क्या है? 

"ये मैला सा उजाला, ये रात की आहत सुबह, 
जिसका इंतजार था हमें ये वो सुबह तो नहीं "

ये लाइन फैज अहमद फैज ने अपनी प्रसिद्ध कविता में आजादी की सुबह के बारे में लिखा है। 

जहां एक तरफ भारत में स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाये जाने वाला दिन था, वहीं दूसरी तरफ भारत और पाकिस्तान के बीच देश का बेरहमी से बंटवारा हुआ था।

अगस्त 1947 से मार्च 1948 के बीच साढ़े चार लाख हिंदू और सिख, पाकिस्तान से भारत आने को मजबूर हुए। 60 लाख मुसलमानों को पाकिस्तान की दिशा में जाना पड़ा। भारत के विभाजन में 10 मिलियन लोग विस्थापित हुए हैं। 1 मिलियन मर चुके हैं।

यदि आप लोगों से विभाजन के बारे में पूछें, तो कुछ लोगों के पास बताने के लिए बहुत ही रोमांचक कहानियाँ हैं। इनमे एक बहुत ही प्रसिद्ध कहानी शामिल हैं|

कहानी के अनुसार जवाहरलाल नेहरू, मुहम्मद अली जिन्ना और एडविना माउंटबेटन
ये तीनों लंदन के एक ही कॉलेज (हैरिस कॉलेज) में पढ़ते थे। कथा कुछ इस प्रकार है। 
वे एक कथित प्रेम त्रिकोण में थे। इसलिए एडविना माउंटबेटन ने अपने पति लुइस माउंटबेटन से भारत को दो देशों में विभाजित करने का अनुरोध किया ताकि नेहरू और जिन्ना दोनों प्रधानमंत्री बन सकें।

लेकिन यह व्हाट्सएप फॉरवर्ड (Whatsapp Forward) की तरह ही अप्रामाणिक है। क्योंकि अगर आप इसके बारे में थोड़ा भी सोचेंगे तो आपको एहसास होगा कि यह कहानी कितनी बेवकूफी भरी है।

जब जिन्ना ने 1892 में लिंकनसइन में कानून की पढ़ाई शुरू की। तब जवाहरलाल नेहरू केवल 3 वर्ष के थे। और एडविना का तो जन्म भी नहीं हुआ था। एडविना का जन्म 1901 में हुआ था। और जवाहरलाल नेहरू ने 1907 में ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज से अपनी पढ़ाई शुरू की और एडविना ने कॉलेज में दाखिला भी नहीं लिया था।

ऐसी कई अफवाहें हैं जिनका खंडन किया जाना है, लेकिन आइए उन कहानियों को एक तरफ रख दें, और चलिए लिखित इतिहास के बारे में समझते हैं। की वास्तव में क्या हुआ था?

14 अगस्त 1947 को देश का बंटवारा हुआ था। लेकिन बंटवारे का फैसला कुछ महीने पहले ही कर दिया गया था। जैसे 18 जुलाई को ब्रिटेन के राजा ने विभाजन की योजना को मंजूरी दिया था| जब उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम को मंजूरी दी।

इससे पहले 5 जुलाई को ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया था। लेकिन इससे भी पहले 3 जून 1947 को लुईस माउंटबेटन ने रेडियो पर विभाजन की योजना की घोषणा की। इसे माउंटबेटन योजना के नाम से जाना जाता था। 

"My first course in all my discussions was, therefore, to urge the political leaders to accept unreservedly the Cabinet Mission Plan of May the 16th, 1946. To my great regret, it has been impossible to obtain an agreement. To live against their will, under a government in which another community has authority, and the only alternative to coercion is Partition "- लुईस माउंटबेटन

अंत तक, केवल दो ही प्रसिद्ध नेता बचे थे जो पूरी तरह से विभाजन के खिलाफ थे। उनमें से एक थे महात्मा गांधी और दूसरे थे खान अब्दुल गफ्फार खान
सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू जैसे अन्य कांग्रेसी नेताओं ने 3 जून को विभाजन की इस योजना को स्वीकार कर लिया था।

“Of the British Government final decision as to how power was to be transferred from British to Indian Hands with Reservations of course, the plan has had a good reception. From Nehru for the Hindu, From Jinnah for the Muslims, and from Sardar Baldev Singh for the Sikhs,” – British Government 

"कोई ऐसा नहीं जो भारत का बटवारा चाहता हो, मेरा दिल भी बहुत भरी है लेकिन चॉइस (Choice) क्या है? एक बटवारा या बहुत सारे बटवारे | we must face facts, भावनाओ में नहीं बह सकते "– सरदार पटेल 

“Nobody likes the division of India, and my heart is heavy. But the choice is between one division and many divisions. We must face facts. We cannot give way to emotionalism and sentimentality” – Sardar Balbhavbhai Patel 

सरदार पटेल जिस स्थिति की बात कर रहे थे, वह वास्तव में उस समय कई वर्षों पहले से ही बन रही थी। यही कारण था कि 1 अप्रैल 1947 को गांधी की मुलाकात माउंटबेटन से हुई और बंटवारे से बचने की पूरी कोशिश करते हैं। गांधी विभाजन से बचने के लिए इतने बेताब थे कि उन्होंने जिन्ना को प्रधान मंत्री का पद देने की पेशकश की। जिसके बाद इस प्रस्ताव को लेके माउंटबेटन नेहरू के पास पहुंचे। नेहरू ने कहा कि उन्हें इससे कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन यह प्रताव पहले भी जिन्ना को पेश किया गया था। और जिन्ना ने इसे पहले भी खारिज कर दिया था। 
और जब इसे जिन्ना को फिर से पेश किया गया, तो जिन्ना ने फिर से इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और उन्होंने ने कहा 

“Mr. Gandhi’s Conception of “Independent India” is basically different from ours” – Jinnah 
“आजाद भारत को लेकर MR. Gandhi का जो विचार है वो हमसे अलग है, बुनयादी तौर पे अलग है” – Jinnah 

लुई माउंटबेटन के लिए, पूरी स्थिति को समझना बहुत नया था। क्योंकि वे मार्च 1947 में वाइसराय बने थे। जब वे पहली बार भारत आए तो ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधान मंत्री क्लेमेंट एटली ने उन्हें विभाजन से बचने की कोशिश करने की सलाह दी थी।
माउंटबेटन से पहले वायसराय आर्चीबाल्ड वेवेल थे। 1943 से मार्च 1947 तक वे भारत के वायसराय थे। 
वेवेल वास्तव में उन लोगों में से थे जो विभाजन से बचने की कोशिश कर रहे थे। वह वास्तव में भारत का विभाजन नहीं चाहते थे। उनका शिमला सम्मेलन और जून 1945 की वेवेल योजना उनके प्रयासों को दर्शाती है।
हमारी समस्या वास्तव में वेवेल से पहले वायसराय के साथ शुरू हुई थी। यह वह व्यक्ति था जिसने समस्याएं पैदा कीं।

 

बहुत से लोग सोचते हैं कि विभाजन का असली कारण यह था कि हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते थे। कि हिंदुओं और मुसलमानों की संस्कृतियां इतनी भिन्न थीं कि वे ऐतिहासिक रूप से एकजुट नहीं रह सके। ऐसा मानने वाले लोग का यह भी मानना है कि मुस्लिम शासक सभी दुष्ट थे। और हिंदू शासक, ऐतिहासिक रूप से, सभी न्यायपूर्ण थे। और मुसलमानों के खिलाफ सदियों से भारतीय उपमहाद्वीप में लड़े गए युद्ध, धर्म पर आधारित थे

लेकिन इनमें से कोई भी सच नहीं है, हालांकि, वास्तव में यह सच है कि कुछ मुस्लिम आक्रमणकारी क्रूर शासक थे| जैसे महमूद गजनवी, मोहम्मद गोरी, बख्तियार खिलजी
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लेकिन यह भी उतना ही सच है की, उस समय के शासकों के बीच ज्यादातर लड़ाई धर्म के कारण नहीं हुई थी, बल्कि सत्ता के लालच के कारण हुई थी।

सत्ता के लालच में राजा-महाराजा आपस में लड़ते थे। इसे साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं। मुस्लिम शासक अन्य मुस्लिम शासकों से लड़ रहे थे। 
जैसे बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच पानीपत की पहली लड़ाई। दोनों मुसलमान थे। इसी तरह, 1790 का पाटन का युद्ध। मराठों और राजपूतों के बीच लड़ा गया। इसी तरह, 1576 की प्रसिद्ध हल्दीघाटी की लड़ाई। मुगलों और राजपूतों के बीच लड़ा गया|

प्रथम दृष्टया यह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक धार्मिक लड़ाई की तरह लगता है|

लेकिन अकबर के सेनापति राजा मान सिंह थे, जो एक हिंदू थे। दूसरी ओर, महाराणा प्रताप के सेनापति थे हकीम खान सूरी जो शेर शाह सूरी के वंशज थे।

जहाँ हमने औरंगज़ेब जैसे धार्मिक कट्टर शासकों को देखा, वहीं दूसरी ओर, हमने कई धर्मनिरपेक्ष शासकों को भी देखा| जैसे अकबर, दारा शिकोह, कृष्णा देव राय, और शिवाजी 

पूर्व के शासकों की लड़ाई की बात को एक तरफ रख देंते है, और  समझते है उस समय के आम लोगों में क्या था? 

एक सूफी कवि हैं, अमीर खुसरो (एक मुस्लिम) उनका जन्म 1200 के दशक में हुआ था। लगभग 800 साल पहले। यह उन्होंने होली के बारे में लिखा था।

“आज रंग है ये माँ रंग है री, 
अरे अल्लाह तू है हर 
मेरे महबूब के घर रंग है री, 
आज रंग है "

आज अगर कोई कवि कुछ ऐसा ही लिखने की हिम्मत करे तो कुछ लोगों की भावनाएं 'आहत' होंगी।

दूसरी ओर, 1400 के दशक में कबीर (एक हिंदू) जैसे लोग थे। जो चरमपंथी हिंदुओं और चरमपंथी मुसलमानों के समान रूप से खिलाफ थे।
"कोई जपे रहीम रहीम, 
कोई जपे राम, 
दस कबीर है प्रेम पुजारी, 
दोनों को परनाम"

और गुरु नानक ने हमेशा सभी धर्मों के बीच एकता पर जोर दिया।

अकबर, जहांगीर और शाहजहां के समय में मुगलों के दरबार में ईद ही नहीं होली भी मनाई जाती थी। वे होली को ईद-ए-गुलाबी कहते थे। और हर कोई होली समारोह में भाग ले सकता था। लाल किले के पीछे एक बहुत बड़ा मेला लगता था। वो दिवाली को जश्न-ए-चारंगा कह के पुकारते थे।

एक पल के लिए तुलसीदास के बारे में सोचें। उन्होंने अकबर के शासनकाल में हिंदू धर्म के प्रमुख ग्रंथों में से एक रामचरित मानस की रचना की। अकबर ने रामायण और महाभारत का फारसी में अनुवाद करवाया था। इसके अलावा अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने कथक सीखा था। और वह कृष्ण लीला को मंच पे नाटक प्रतुत करने के लिए प्रसिद्ध हैं।

एक बार ऐसा हुआ, होली और मुहर्रम एक ही दिन पड़ा| और चूंकि मुहर्रम मुसलमानों के लिए शोक का दिन है, इसलिए हिंदुओं ने सम्मान के रूप में कहा कि वे उस दिन होली नहीं मनाएंगे। जब वाजिद अली शाह को इस बात का पता चला तो उन्होंने बाहर जाकर खुलेआम होली मनाई।

आपको हमारे इतिहास में हिंदू-मुस्लिम एकता के अनगिनत उदाहरण मिलेंगे, लेकिन आपको उनके बारे में इसलिए नहीं बताया गया क्योंकि मीडिया के एक खास वर्ग और कुछ राजनीतिक दलों ने हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच नफरत फैलाने को अपने पूरे बिजनेस मॉडल का आधार बनाया है। जिससे उनकी आजकल राजनीती और धंधा दोनों चल रहा है| 

आइए हम अपनी कहानी में आगे बढ़ते हैं।
1857 के विद्रोह के दौरान। यह हिंदू-मुस्लिम एकता का एक और उदाहरण था। कंपनी के शासन के खिलाफ कई हिंदू शासकों और मुस्लिम शासकों ने मिलकर लड़ाई लड़ी। 
जैसे की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब पेशवा, तात्या टोपे, बेगम हजरत महल, कुंवर सिंह, और जनरल बख्त खान

उन सभी ने बहादुर शाह जफर को अपना सेनापति मान लिया। 1857 के विद्रोह के बाद, भारत पर से कंपनी का शासन समाप्त हुआ, और ब्रिटिश राज (शासन) की स्थापना हुई। लेकिन इस विद्रोह ने अंग्रेजों को बहुत डरा दिया था। उन्हें डर था कि अगर इस तरह की और क्रांतियां हुईं तो उनका शासन जल्द ही खत्म हो जाएगा। इसलिए ब्रिटिश राज ने फूट डालो और राज करो की अपनी प्रसिद्ध नीति अपनाई
अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति को बेहतर ढंग से समझने के लिए हमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव को भी समझना होगा। कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश अधिकारी ए.ओ. ह्यूम की सहायता से हुई थी। वे बहुत ही आध्यात्मिक व्यक्ति थे। उन्होंने 1857 के विद्रोह पर एक बहुत ही साहसी रिपोर्ट लिखी थी। उन्होंने लिखा था कि वास्तव में 1857 का विद्रोह, ब्रिटिश अत्याचारों के कारण हुआ था। क्योंकि अंग्रेज भारतीयों के साथ बुरा व्यवहार कर रहे थे। इस ब्रिटिश अधिकारी ने वायसराय की खुलेआम आलोचना की थी। इसलिए उन्हें उनके पद से हटा दिया गया। बाद में उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
उन्होंने अपनी एक प्रसिद्ध कविता लिखी, “Old Man Hope”

यहाँ वह भारतीयों को जागरूक कर रहे थे की अपने लिए एक स्वतंत्र राष्ट्र की मांग करने के लिए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय राष्ट्रवाद के लिए एक केंद्रीय संगठन बन गई। कांग्रेस ने मांग की कि भारतीयों, शिक्षित भारतीयों को सरकार में अधिक हिस्सा दिया जाना चाहिए।

वायसराय तब डफरिन थे। उन्होंने कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन को अपनी स्वीकृति प्रदान की। प्रारंभ में, वह कांग्रेस से परेशान नहीं थे। लेकिन जल्द ही, उन्होंने महसूस किया कि कांग्रेस जो गतिविधियाँ कर रही थी, वह ब्रिटिश राज के लिए खतरा थी। इसलिए वह सावधान हो गया। उन्होंने कांग्रेस से अनुरोध किया कि वे अपने सत्रों और बैठकों को गैर-राजनीतिक सामाजिक सुधारों पर केंद्रित करें। लेकिन कांग्रेस ने हार नहीं मानी। इसलिए वायसराय डफरिन ने कांग्रेस के प्रभाव को दबाने के लिए अन्य तकनीकों को अपनाया। उन्होंने अमीरों से संपर्क करके उनसे कांग्रेस से अपना संरक्षण वापस लेने के लिए कहा। उन्होंने एक नियम बनाया कि कोई भी सरकारी कर्मचारी कांग्रेस की बैठकों में भाग नहीं ले सकता। उन्होंने वफादार, ब्रिटिश समर्थक लोगों की मदद लेने पर भी विचार किया।

उनमें से एक थे शिक्षाविद् सैयद अहमद खान। और दूसरे थे भाषाविद् शिव प्रसाद। इन दोनों को देश में कांग्रेस विरोधी आंदोलन शुरू करने के लिए कहा गया था। इसलिए 1887 के आसपास सैयद अहमद खान ने भाषण देना शुरू किया। तब, कांग्रेस मांग कर रही थी कि आईसीएस परीक्षा भारत में आयोजित की जाए। ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए गए बजट में भारतीयों की हिस्सेदारी हो जिससे कि भारतीय, बजट को कम से कम एक हद तक अपने पछ में प्रभावित कर सकें।
सैयद अहमद खान ने इन सभी मांगों का पूर्ण विरोध किया। और लोगों को कांग्रेस से दूर रहने की सलाह दी। 
ये कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन जो सबसे ज्यादा मायने रखता है वह यह है कि यहीं से उन्होंने टू-नेशन थ्योरी के बारे में बात करना शुरू किया। उन्होंने लोगों से कहा कि मुसलमान धर्म खतरे में हैं। यह दावा करते हुए कि अंग्रेजों के जाने के बाद हिंदू मुसलमानों को तड़पाना शुरू कर देंगे। इसके पहले, फ्रांसीसी, पुर्तगाली और जर्मन आक्रमणकारी भारत में आकर भारतीयों के साथ बुरा बर्ताव करते थे। इसलिए, उन्होंने दावा किया, मुसलमानों के लिए यह बेहतर होगा कि मुसलमान ब्रिटिश और ब्रिटिश शासन का समर्थन करें।

हालाँकि सैयद अहमद खान ने मुसलमानों की आधुनिक शिक्षा पर जोर दिया था, और 1875 में उन्होंने एक कॉलेज की स्थापना की जिसे अब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है। 

लेकिन उनके भड़काने वाले भाषणों और कांग्रेस विरोधी आंदोलन का गंभीर परिणाम हुआ। 1900 के दशक की शुरुआत तक, देश में कुलीन मुसलमानों के एक वर्ग ने इस टू-नेशन थ्योरी में बहुत दृढ़ता से विश्वास किया। इस वजह से 1906 में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई।

जाहिर है, अंग्रेज फूट डालो और राज करो की नीति को हवा देना चाहते थे, इसलिए अंग्रेजों ने इस अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का भी समर्थन किया। ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने वायसराय मिंटो से मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की मांग की। कांग्रेस इसका कड़ा विरोध कर रही थी। तब कांग्रेस नेता मुहम्मद अली जिन्ना भी इसका विरोध कर रहे थे। वही जिन्ना जिन्होंने बाद में विभाजन का समर्थन किया।

लेकिन इस समय तक, जिन्ना पूरी तरह से अलग निर्वाचक मंडल के खिलाफ थे। उनका मानना था कि इससे देश दो भागों में बंट जाएगा। इस समय तक सरोजिनी नायडू जैसे लोग जिन्ना को हिंदू-मुस्लिम एकता का दूत मानते थे|

लेकिन अंग्रेजों ने यहां फूट डालो और राज करो का इस्तेमाल करने का एक और मौका देखा। और उन्होंने अलग निर्वाचक मंडल को मंजूरी दी। मुसलमानों को पृथक निर्वाचक मंडल देने का अर्थ था कि कुछ आरक्षित सीटें होंगी जिनके लिए केवल मुस्लिम उम्मीदवार ही चुनाव लड़ सकते थे और उस चुनाव में केवल मुस्लिम मतदाता ही मतदान कर सकते थे। ब्रिटिश राज ने इसे भारतीय परिषद अधिनियम, 1909 के नाम से पारित किया| इसे मॉर्ले-मिंटो सुधारों के रूप में भी जाना जाता है।

लेकिन अंग्रेज यहीं नहीं रुके।
भारतीय परिषद अधिनियम, 1919 बाद में पारित किया गया जिसमें सिखों, यूरोपीय और एंग्लो-इंडियन को समान प्रतिनिधित्व दिया गया था। उनकी फूट डालो और राज करो की नीति फल-फूल रही थी। अधिक दरारें बनने लगीं। देश में विभिन्न धर्मों के बीच। इससे हिंदुओं का एक छोटा सा वर्ग अपने आप को उपेछित महसूस करने लगा। उन्हें लगने लगा कि उनके लिए कुछ नहीं किया जा रहा है। और उनके हितों की अनदेखी की जा रही है।

इसलिए, अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के समान, एक हिंदू लीग का गठन किया गया था। इसका नाम अखिल भारतीय हिंदू महासभा रखा गया। इसकी स्थापना मदन मोहन मालवीय ने की थी।

इसके बाद 1925 में केशव बलिराम नाम के व्यक्ति ने एक और हिंदू संगठन की स्थापना की। इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का नाम दिया गया। 

जहां एक तरफ कुछ मुसलमान 'मुसलमान खतरे में हैं' के बातो पर विश्वास कर रहे थे, वहीं कुछ हिंदुओं को यह डर लगने लगा कि 'हिंदू खतरे में हैं।' इसके पीछे एक और कारण यह था कि अंग्रेजों द्वारा स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास, लोगों के सामने प्रस्तुत किया गया इतिहास, इतिहास का विकृत रूप था। अंग्रेजों ने दिखाया कि कैसे इतिहास में हिंदू ने मुस्लिम शासकों का विरोध कर रहे थे। 
1909 में, एक भारतीय चिकित्सा सेवा अधिकारी, लेफ्टिनेंट कर्नल यूएन मुखर्जी ने कोलकाता स्थित एक समाचार पत्र में कुछ पत्र लिखे।

उन्होंने पत्रों का शीर्षक रखा, "Hindu: A Dying Race!"

इन पत्रों में, उन्होंने अपने डर के बारे में बताया कि कैसे हिंदू खतरे में थे। कि मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ रही थी और कुछ सालों बाद हिंदू आबादी कम हो जाएगी। वही बातें जो हमें आज भी कुछ लोगों से 100 साल बाद भी सुनने को मिलती हैं। उसे डर था कि मुसलमान पूरे देश पर कब्जा कर लेंगे। दूसरी ओर, कुछ मुसलमानों को डर था कि हिंदू देश पर कब्जा कर लेंगे।

यही वजह थी, “डर” जो अगले कुछ वर्षों में दंगों में बदल गया।

1920 के दशक में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक दंगे होने लगे। जो समय के साथ और ज्यादा होने लगे थे। 

आगे चल के सावरकर और हिंदुत्व की भूमिका और जिन्ना का बाद में यू-टर्न  यही अंतत: विभाजन की ओर ले जाता है। 

यहाँ तक हमने ये समझ लिया की कैसे हिन्दू और मुस्लिम में दरारे बन गयी थी और जिसकी वजह से आगे चल के भारत देश का विभाजन का कारण बनती है 

आगे का इतिहास अपने अगले ब्लॉग में लिखूंगा 

ये जानकारी कैसी लगी कमेंट करके जरुर बताये | 

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